अधिक मास: हिन्दी ब्लॉग पोस्ट

भारतीय पंचांग में अधिक मास एक महत्वपूर्ण और रोचक विषय है। हिन्दू धर्म में अधिक मास को एक अलग पर्याय या उपयुक्त मास के रूप में गणना किया जाता है, जो साल में एक या दो बार आता है। इस लेख में, हम अधिक मास के बारे में विस्तृत जानकारी देंगे और इसके महत्व को समझेंगे।

अधिक मास क्या है? अधिक मास एक सांख्यिकीय एवं वैदिक अंश है जो कई पंचांगों में उपयोग होता है। यह अत्यंत मान्यता पूर्वक माना जाता है और इसे संस्कृत में “मालमास” कहा जाता है। इस मास की अवधि विभिन्न पंचांगों और क्षेत्रों के अनुसार बदलती है, लेकिन यह मास लगभग 29 या 30 दिनों की होती है। यह मास वैशाख और ज्येष्ठ मास के बीच आता है, जब वार्षिक मास ज्येष्ठ मास में समाप्त हो जाता है और आगामी साल का वैशाख मास शुरू होता है।

अधिक मास का महत्व: अधिक मास को हिन्दू परंपरा में विशेष महत्व दिया जाता है। इस मास को संगठित रूप से अवधारित किया जाता है और धार्मिक कार्यों और पूजाओं के लिए उपयुक्त माना जाता है। अधिक मास में विशेष पूजाओं, व्रतों, और सामाजिक कार्यक्रमों का आयोजन किया जाता है। यह मास धार्मिक उपासना, स्वाध्याय, और तपस्या के लिए अद्वितीय अवसर प्रदान करता है।

अधिक मास की मान्यता के पीछे कारण: अधिक मास के पीछे कई कारण हैं जो इसे एक महत्वपूर्ण मास बनाते हैं। इस मास में मान्यता देने के पीछे कुछ प्रमुख कारणों में से कुछ निम्नलिखित हैं:

  1. ऋषियों की आदर्श जीवनशैली के अनुसार, अधिक मास को अनुसरण करना मन्दिरों में और परम्परागत कार्यक्रमों में प्रमुख भूमिका निभाता है।
  2. अधिक मास में धार्मिक संगठनों द्वारा विशेष पूजा, व्रत, और प्रवचनों का आयोजन किया जाता है।
  3. अधिक मास में विभिन्न आराध्य देवताओं और देवीदेवताओं की पूजा की जाती है और इसे अपने आप को शुद्ध और धार्मिक व्यवहारों के लिए समर्पित करने का उद्देश्य रखा जाता है।
  4. अधिक मास को संसार की माया और अपार्थिविक बंधनों से मुक्त होने और आध्यात्मिक उन्नति के लिए एक अद्वितीय अवसर के रूप में मान्यता दी जाती है।

अधिक मास हमारे जीवन में एक महत्वपूर्ण धार्मिक और सामाजिक तिथि है जो हमें आध्यात्मिक विकास और सम्पूर्णता की ओर अग्रसर करती है। इस अद्वितीय मास के दौरान हमें अपने मानसिक, शारीरिक, और आध्यात्मिक तत्वों का समान्वय स्थापित करने का अवसर मिलता है। अधिक मास के आगमन पर हमें इसे उपयोगी और पवित्र तथ्यों के रूप में स्वीकार करना चाहिए और इसे धार्मिक उपासना और सेवा में सक्रियता लाना चाहिए।

आशा है कि यह आपको अधिक मास के बारे में उपयोगी जानकारी प्रदान करेगा। यह हमारी वैदिक और सांस्कृतिक परंपरा में एक महत्वपूर्ण स्थान रखता है और हमें हमारे धार्मिक उपासना को गहनता और आत्मसात करने का एक अद्वितीय अवसर प्रदान करता है।

अधिक मास | Adhik Mass | Pryas | मालमास | अधिक मास का महत्व | हिन्दू पंचांग | वैदिक परंपरा | धार्मिक उपासना | पूजा, व्रत | आध्यात्मिक विकास | आदर्श जीवनशैली | धार्मिक कार्यक्रम | संसारिक बंधन | सामर्थ्य, माया | आध्यात्मिक उन्नति |

सदाचरण से सम्मान

प्राचीन समय में वाराणसी के राज पुरोहित हुआ करते थे- देव मित्र। राजा को राज पुरोहित की विद्वता और योग्यता पर बहुत भरोसा था। राजा इसलिए उनकी हर बात मानते थे। प्रजा के बीच भी राज पुरोहित का काफी आदर था। एक दिन राज पुरोहित के मन में सवाल उठा कि राजा और दूसरे लोग जो मेरा सम्मान करते हैं, उसका कारण क्या है? राज पुरोहित ने अपने इस प्रश्न का उत्तर पाने के लिए एक योजना बनाई।

अगले दिन दरबार से लौटते समय उन्होंने राज कोषागार से एक स्वर्ण मुद्रा चुपचाप ले ली, जिसे कोष अधिकारी ने देखकर भी नजरंदाज कर दिया। राज पुरोहित ने दूसरे दिन भी दरबार से लौटते समय दो स्वर्ण मुद्राएं उठा लीं। कोष अधिकारी ने देखकर सोचा कि शायद किसी प्रयोजन के लिए वे ऐसा कर रहे हैं, बाद में अवश्य बता देंगे। तीसरे दिन राज पुरोहित ने मुट्ठी में स्वर्ण मुद्राएं भर लीं। इस बार कोष अधिकारी ने उन्हें पकड़कर सैनिकों के हवाले कर दिया। उनका मामला राजा तक पहुंचा। न्यायाधीश की कुर्सी पर बैठे राजा ने अपना निर्णय सुनाते हुए कहा कि राज पुरोहित द्वारा तीन बार राजकोष का धन चुराया गया है। इस दुराचरण के लिए उन्हें तीन महीने की कैद दी जाए ताकि वह फिर कभी ऐसा अपराध न कर सकें।

राजा के निर्णय से राज पुरोहित को अपने सवाल का जवाब मिल चुका था। राज पुरोहित ने राजा से निवेदन किया, ‘राजन मैं चोर नहीं हूं। मैं यह जानना चाहता था कि आपके द्वारा मुझे जो सम्मान दिया जाता है, उसका सही अधिकारी कौन है, मेरी योग्यता, विद्वता या मेरा सदाचरण। आज सभी लोग समझ गए हैं कि सदाचरण को छोड़ते ही मैं दंड का अधिकारी बन गया हूं। सदाचरण और नैतिकता ही मेरे सम्मान का मूल कारण थी।’ इस पर राजा ने कहा कि वह उनकी बात समझ रहे हैं मगर दूसरों को सीख देने के लिए उनका दंडित होना आवश्यक है।

राज पुरोहित, वाराणासी, देव मित्र, विद्वता, योग्यता, सदाचरण, नैतिकता, कोषागार, स्वर्ण मुद्रा, प्रयास, हिन्दी ब्लौग, यह भी खूब रही, पुरानी कहानीयाँ, प्रयास का ब्लौग, नरेश का ब्लौग, raaj purhoit, varanasi, dev mitra, vidhwata, yogyata, sadacharan, naitikta, koshagar, swarn mudra, pryas, hindi blog, yah bhi khoob rahi, purani kahaniyan, pryas ka blog, naresh ka blog

क्रोध से नुकसान

अहं नामक व्यक्ति को बहुत गुस्सा आता था। वह जरा – जरा सी बात पर क्रोधित हो जाता था। वह उच्च शिक्षित और उच्च पद पर आसीन था। उसके क्रोध को देखकर एक सज्जन ने उसे सुदर्शन नामक ऋषि के आश्रम में जाने को कहा। अहं ने उस सज्जन की यह बात सुनते ही उसे गुस्से से घूरा और बोला , ‘मैं क्या पागल हूं जो सदुर्शन ऋ षि के आश्रम में जाऊं?

मैं तो सर्वश्रेष्ठ हूं और मेरे आगे कोई कुछ नहीं है। ‘ उसकी इस बात को सुनकर सज्जन वहां से चला गया। धीरे – धीरे सभी अहं से दूर – दूर रहने लगे। उसे भी इस बात का अहसास हो गया था। एक दिन वह बेहद क्रोध में सुदर्शन ऋ षि के आश्रम में जा पहुंचा। सुदर्शन ऋषि ने अहं के क्रोध के बारे में सुन रखा था। उन्होंने उसके क्रोध को दूर करने की मन में ठानी। वह जानबूझकर बोले , ‘ कहो नौजवान कैसे हो ? तुम्हें देखकर तो प्रतीत होता है कि तुममें दुर्गुण ही दुर्गुण भरे हुए हैं। ‘

सुदर्शन ऋषि की बात सुनकर अहं को बेहद क्रोध आया । क्रोध में उसकी मुट्ठियां भिंच गईं और वह दांत पीसते हुए सुदर्शन ऋ षि के साथ सबको अनाप – शनाप बकने लगा। क्रोध में उसकी उल्टी – सीधी बातें सुनकर आश्रम में अनेक लोग एकत्रित हो गए किंतु किसी ने भी उसे कुछ नहीं कहा । बोल – बोलकर जब वह थक गया तो चुपचाप नीचे बैठ गया।

बेवजह क्रोध में बोलकर उसका सिर दर्द हो गया था और गला भी सूख गया था। उसकी ऐसी स्थिति देखकर सुदर्शन ऋ षि बोले ,’ कहो नौजवान क्त्रोध ने तुम्हारे सिवाय किसी और का अहित किया है। सभी दुर्गुण पहले स्वयं को विनाश के कगार पर लेकर आते हैं। तुम्हारे क्रोध ने तुमको सबसे दूर कर दिया है जबकि तुम अत्यंत ज्ञानी एवं शिक्षित व्यक्ति हो। ‘ ऋ षि की सारी बातें अहं ने सुनी और उसे अपनी गलती का पश्चाताप् हुआ। उसने उसी दिन से अपने व्यक्तित्व में से क्रोध को दूर करने का निश्चय कर लिया।

क्रोध, नुकसान, क्रोध से नुकसान, सुदर्शन ऋषि, ऋषि के आश्रम, दुर्गुण ही दुर्गुण, पुरानी कहानियाँ, प्रयास, प्रयास का ब्लौग, यह भी खूब रही, हितोपदेश, hitopdesh, pryas, pryas ka blog, purani kahaniyan, yah bhi khoob rahi, krodh, nuksan, krodh se nuksan, sudarshan rishi, rishi ka ashram, durgun hi durgun

अमरत्व का फल

एक दिन एक किसान बुद्ध के पास आया और बोला, ‘महाराज, मैं एक साधारण किसान हूं। बीज बोकर, हल चला कर अनाज उत्पन्न करता हूं और तब उसे ग्रहण करता हूं । किंतु इससे मेरे मन को तसल्ली नहीं मिलती। मैं कुछ ऐसा करना चाहता हूं जिससे मेरे खेत में अमरत्व के फल उत्पन्न हों। आप मुझे मार्गदर्शन दीजिए जिससे मेरे खेत में अमरत्व के फल उत्पन्न होने लगें।’

बात सुनकर बुद्ध मुस्कराकर बोले, ‘भले व्यक्ति, तुम्हें अमरत्व का फल तो अवश्य मिल सकता है किंतु इसके लिए तुम्हें खेत में बीज न बोकर अपने मन में बीज बोने होंगे?’ यह सुनकर किसान हैरानी से बोला, ‘प्रभु, आप यह क्या कह रहे हैं? भला मन के बीज बोकर भी फल प्राप्त हो सकते हैं।’

बुद्ध बोले, ‘बिल्कुल हो सकते हैं और इन बीजों से तुम्हें जो फल प्राप्त होंगे वे वाकई साधारण न होकर अद्भुत होंगे जो तुम्हारे जीवन को भी सफल बनाएंगे और तुम्हें नेकी की राह दिखाएंगे।’ किसान ने कहा , ‘प्रभु, तब तो मुझे अवश्य बताइए कि मैं मन में बीज कैसे बोऊं?’ बुद्ध बोले, ‘तुम मन में विश्वास के बीज बोओ, विवेक का हल चलाओ, ज्ञान के जल से उसे सींचो और उसमें नम्रता का उर्वरक डालो। इससे तुम्हें अमरत्व का फल प्राप्त होगा। उसे खाकर तुम्हारे सारे दु:ख दूर हो जाएंगे और तुम्हें असीम शांति का अनुभव होगा।’ बुद्ध से अमरत्व के फल की प्राप्ति की बात सुनकर किसान की आंखें खुल गईं। वह समझ गया कि अमरत्व का फल सद्विचारों के द्वारा ही प्राप्त किया जा सकता है।

पुरानी कहानियाँ, प्रयास, प्रयास का ब्लौग, यह भी खूब रही, हितोपदेश, hitopdesh, pryas, pryas ka blog, purani kahaniyan, yah bhi khoob rahi, एक किसान, साधारण किसान, अमरत्व का फल, एक किसान, साधारण किसान, अमरत्व का फल

गुरु का संदेश

छत्रपति शिवाजी ने अपने पराक्रम से अनेक लड़ाइयां जीतीं। इससे उनके मन में थोड़ा अभिमान आ गया। उन्हें लगता था कि उनके जैसा वीर धरती पर और कोई नहीं है। कई बार उनका यह अभिमान औरों के सामने भी झलक पड़ता। एक दिन शिवाजी के महल में उनके गुरु समर्थ रामदास पधारे। शिवाजी वैसे तो रामदास का काफी आदर करते थे लेकिन उनके सामने भी उनका अभिमान व्यक्त हो ही गया, ‘गुरुजी अब मैं लाखों लोगों का रक्षक और पालक हूं। मुझे उनके सुख-दुख और भोजन-वस्त्र आदि की काफी चिंता करनी पड़ती है।’

रामदास समझ गए कि उनके शिष्य के मन में राजा होने का अभिमान हो गया है। इस अभिमान को तोड़ने के लिए उन्होंने एक तरकीब सोची। शाम को शिवाजी के साथ भ्रमण करते हुए रामदास ने अचानक उन्हें एक बड़ा पत्थर दिखाते हुए कहा, ‘शिवा, जरा इस पत्थर को तोड़कर तो देखो।’ शिवाजी ने गुरु की आज्ञा का पालन करते हुए तत्काल वह पत्थर तोड़ डाला। किंतु यह क्या, पत्थर के बीच से एक जीवित मेंढक एक पतंगे को मुंह में दबाए बैठा था।

इसे देखकर शिवाजी चकित रह गए। समर्थ रामदास ने पूछा, ‘पत्थर के बीच बैठे इस मेंढक को कौन हवा-पानी दे रहा है? इसका पालक कौन है? कहीं इसके पालन की जिम्मेदारी भी तुम्हारे कंधों पर तो नहीं आ पड़ी है?’ शिवाजी गुरु की बात का मर्म समझकर लज्जित हो गए। गुरु ने उन्हें समझाया, ‘पालक तो सबका एक ही है और वह परम पिता परमेश्वर। हम-तुम तो माध्यम भर हैं। इसलिए उस पर विश्वास रखकर कार्य करो। तुम्हें सफलता अवश्य मिलेगी।’

पुरानी कहानियाँ, प्रयास, प्रयास का ब्लौग, यह भी खूब रही, हितोपदेश, hitopdesh, pryas, pryas ka blog, purani kahaniyan, yah bhi khoob rahi, गुरु का संदेश, छत्रपति शिवाजी, गुरु समर्थ रामदास, सुख-दुख, भोजन-वस्त्र, परम पिता परमेश्वर, guru ka sandesh, chatrapati shivaji, guru samarth ramdas, sukh dukh, bhojan vastra, param pita parmeshwar

कर्त्तव्य की भावना

यह काफी पुरानी घटना है। मद्रास प्रांत के एक स्टेशन के निकट एक पॉइंटमैन अपना पॉइंट (वह उपकरण जिससे गाड़ियों का ट्रैक बदला जाता है) पकड़े खड़ा था। दोनों ओर से दो गाड़ियां अपनी पूरी गति से दौड़ी चली आ रही थीं। उस दिन मौसम खराब था और वह आंधी-तूफान का संकेत दे रहा था। ऐसे भयावह मौसम में रोशनी के भी भरपूर साधन नहीं थे। पॉइंटमैन अपने काम के लिए मुस्तैदी से तैयार था। तभी उसे अपने पैरों पर कुछ रेंगता हुआ महसूस हुआ। उसने देखा तो दंग रह गया। एक सांप उसके पैरों से लिपट रहा था। पॉइंट उसके हाथ में था।

डर के कारण उसकी घिग्घी बंध गई। किंतु तभी उसने सोचा कि यदि वह पॉइंट हाथ से छोड़ देगा तो ऐसे में दोनों गाडि़यां परस्पर भिड़ जाएंगी और असंख्य लोगों की मृत्यु हो जाएगी। सांप के काटने से तो अकेले सिर्फ उसकी जान जाएगी लेकिन असंख्य लोगों की जान बच जाएगी। कम से कम मरते-मरते वह असंख्य लोगों की जान बचाने का पुण्य तो अजिर्त कर ही लेगा। यह सोचकर वह बिना हिला-डुले पॉइंट को पकड़े खड़ा रहा। कुछ ही देर में दोनों रेलगाडि़यों की घड़घड़ाहट तेज हुई और रेलगाडि़यां आराम से पॉइंट मैन के द्वारा पकड़े गए पॉइंट की सहायता से अलग-अलग ट्रैक पर निकल गईं। उधर सांप रेलगाडि़यों की घड़घड़ाहट सुनकर पॉइंटमैन का पैर छोड़कर चला गया। रेलगाडि़यों के जाने के बाद जब पॉइंटमैन का ध्यान अपने पैरों की ओर गया तो वह यह देखकर दंग रह गया कि वहां कुछ न था।

यह देखकर उसके मन से स्वत: ही निकला, ‘सच ही है, जो इंसान सच्चे मन से लोगों की मदद करते हैं उनकी सहायता ईश्वर स्वयं करते हैं। ‘बाद में जब इस घटना का पता अधिकारियों को चला तो उन्होंने न सिर्फ पॉइंट मैन को शाबासी दी अपितु उसे पुरस्कार देकर सम्मानित भी किया।

पुरानी कहानियाँ, प्रयास, प्रयास का ब्लौग, यह भी खूब रही, हितोपदेश, hitopdesh, pryas, pryas ka blog, purani kahaniyan, yah bhi khoob rahi, कर्त्तव्य की भावना, मद्रास प्रांत, मौसम खराब था, आंधी-तूफान, घिग्घी बंध गई, रेलगाडि़यों की घड़घड़ाहट, kartvya ki bhawna, madras prant, mausam kharab tha, andhi toofan, ghigghi badh gayi, railgadi ki ghadghadhat

किताबी ज्ञान

पुराने जमाने की बात है। एक व्यक्ति अध्ययन करने काशी गया। विभिन्न शास्त्रों की जानकारी प्राप्त करने में उसे बारह वर्ष लग गए। जब वह लौटा तो घर के लोग काफी प्रसन्न हुए। पत्नी ने उसके स्नान के लिए गर्म पानी तैयार किया। वह उस बर्तन को लेकर स्नान गृह गई। उसने देखा कि वहां हजारों चींटियां हैं। उसने सोचा कि कहीं वे बेचारी बेमौत न मर जाएं, इसलिए उसने गर्म पानी के बर्तन को दूसरे स्थान पर रख दिया। पति आया और बर्तन को उठाकर फिर पहले वाले स्थान पर ले गया और वहीं स्नान करने लगा।

पत्नी ने देखा तो वह परेशान हो गई। उसने कहा, ‘मैंने गर्म पानी का यह बर्तन वहां रखा था, यहां कैसे आ गया?’ पति ने कहा, ‘तुम भी अजीब बात करती हो। स्नान का स्थान यही है। मैं यहीं नहाऊंगा न। मैं ही उस बर्तन को यहां उठा लाया।’ इस पर पत्नी बोली, ‘मैं भी पहले यहीं रखना चाह रही थी, लेकिन यहां चींटियां बहुत हैं।

आपके स्नान के पानी से वे सब मर जाएंगी। इसलिए मैंने इसे दूसरे स्थान पर रखा था।’ पति बोला, ‘यह तो अजीब मूर्खतापूर्ण बात है। क्या मैं चींटियों को जिलाने के लिए ही जनमा हूं? अगर मैं इसी तरह हर किसी की चिंता करता रहा तो जीना मुश्किल हो जाएगा।’ इस बात से पत्नी दुखी हो गई। उसने कहा, ‘बारह वर्ष तक आपने विद्याध्ययन किया। काशी में रहे। लेकिन समझ में नहीं आता कि आपने क्या हासिल किया। ऐसे किताबी ज्ञान से क्या लाभ, जो आपके भीतर संवेदना न पैदा कर सके। क्या आप इतना भी नहीं समझ सके कि किसी प्राणी को अकारण पीड़ा नहीं पहुंचानी चाहिए। ज्ञान का सार तो संवेदनशीलता है। यदि हमारे मन में दूसरों के प्रति सहानुभूति नहीं जागी तो बहुत बड़ा बौद्धिक ज्ञान भी उपयोगी नहीं है।’ यह सुनकर पति लज्जित हो गया और वहां से निकलकर दूसरी जगह नहाने लगा।

किताबी ज्ञान, शास्त्रों की जानकारी, गर्म पानी, प्रयास, प्रयास का ब्लौग, यह भी खूब रही, पुरानी कहानियाँ, हितोपदेश, pryas, pryas ka blog, yah bhi khoob rahi, purani kahaniyan, hitopdesh

मनुष्यता का पाठ

यह घटना उस समय की है, जब क्रांतिकारी रोशन सिंह को काकोरी कांड में मृत्युदंड दिया गया। उनके शहीद होते ही उनके परिवार पर मुसीबतों का पहाड़ टूट पड़ा। घर में एक जवान बेटी थी और उसके लिए वर की तलाश चल रही थी। बड़ी मुश्किल से एक जगह बात पक्की हो गई। कन्या का रिश्ता तय होते देखकर वहां के दरोगा ने लड़के वालों को धमकाया और कहा कि क्रांतिकारी की कन्या से विवाह करना राजद्रोह समझा जाएगा और इसके लिए सजा भी हो सकती है।

किंतु वर पक्ष वाले दरोगा की धमकियों से नहीं डरे और बोले, ‘यह तो हमारा सौभाग्य होगा कि ऐसी कन्या के कदम हमारे घर पड़ेंगे, जिसके पिता ने अपना शीश भारत माता के चरणों पर रख दिया।’ वर पक्ष का दृढ़ इरादा देखकर दरोगा वहां से चला आया पर किसी भी तरह इस रिश्ते को तोड़ने के प्रयास करने लगा।

जब एक पत्रिका के संपादक को यह पता लगा तो वह आगबबूला हो गए और तुरंत उस दरोगा के पास पहुंचकर बोले, ‘मनुष्य होकर जो मनुष्यता ही न जाने वह भला क्या मनुष्य? तुम जैसे लोग बुरे कर्म कर अपना जीवन सफल मानते हैं किंतु यह नहीं सोचते कि तुमने इन कर्मों से अपने आगे के लिए इतने कांटे बो दिए हैं जिन्हें अभी से उखाड़ना भी शुरू करो तो अपने अंत तक न उखाड़ पाओ। अगर किसी को कुछ दे नहीं सकते तो उससे छीनने का प्रयास भी न करो।’ संपादक की खरी-खोटी बातों ने दरोगा की आंखें खोल दीं और उसने न सिर्फ कन्या की मां से माफी मांगी, अपितु विवाह का सारा खर्च भी खुद वहन करने को तैयार हो गया।

विवाह की तैयारियां होने लगीं। कन्यादान के समय जब वधू के पिता का सवाल उठा तो वह संपादक उठे और बोले, ‘रोशन सिंह के न होने पर मैं कन्या का पिता हूं। कन्यादान मैं करूंगा।’ वह संपादक थे- महान स्वतंत्रता सेनानी गणेश शंकर विद्यार्थी

संकलन: रेनू सैनी
नवभारत टाइम्स में प्रकाशित

मनुष्यता का पाठ, क्रांतिकारी रोशन सिंह, काकोरी कांड, क्रांतिकारी की कन्या, महान स्वतंत्रता सेनानी, गणेश शंकर विद्यार्थी, प्रयास, प्रयास का ब्लौग, यह भी खूब रही, पुरानी कहानियाँ, हितोपदेश, manyushyata kaa paath, krantikari roshan singh, kakori kand, krantikari ki kanya, mahan swantrta senani, ganesh shankar vidhyarthi, pryas, pryas ka blog, yah bhi khoob rahi, purani kahaniyan, hitopdesh

विश्वास की रक्षा

बात तब की है जब अमर शहीद राम प्रसाद बिस्मिल पकड़ लिए गए। उन्हें कोतवाली लाया गया। कोतवाली में निगरानी रखने वाला सिपाही सो रहा था। बिस्मिल के पास भागने का पूरा मौका था। उन्होंने देखा कि वहां केवल बुजुर्ग मुंशीजी जागे हुए हैं। बूढ़े मुंशी ने भांप लिया कि बिस्मिल भागने की सोच रहे हैं। वह तुरंत बिस्मिल के पैरों पर गिर गए और बोले, ‘ऐसा न करना। नहीं तो मैं बंदी बना लिया जाऊंगा और मेरे बच्चे भूखों मर जाएंगे।’

बिस्मिल को उन पर दया आ गई और उन्होंने भागने का विचार तत्काल त्याग दिया। संयोगवश दो दिनों के बाद ही ऐसा मौका उन्हें फिर मिला। उन्हें जब शौचालय ले जाया गया तो उनके साथ दो सिपाही थे। एक ने दूसरे से कहा कि इनके हाथों में बंधी रस्सियां हटा दो। मुझे विश्वास है कि ये भागेंगे नहीं। इसके बाद जब बिस्मिल शौचालय गए तो पाया कि शौचालय की दीवार ज्यादा ऊंची नहीं है। बस हाथ बढ़ाते ही वह दीवार के ऊपर हो जाते और क्षण भर में बाहर निकल जाते।

उन्होंने देखा कि बाहर सिपाही कुश्ती देखने में मगन हैं। वह भागने ही वाले थे कि उन्हें विचार आया कि जिस सिपाही ने विश्वास कर इतनी स्वतंत्रता दी उससे विश्वासघात कैसे करूं। उन्होंने भागने का विचार तुरंत त्याग दिया। उन्होंने अपनी आत्मकथा में जेलर पंडित चंपालाल की भी काफी बड़ाई की है। उन्हें भागने के कई मौके हासिल हुए लेकिन उन्होंने सोचा कि इससे पंडित चंपालाल के ऊपर आफत आ जाएगी। बिस्मिल के लिए विश्वास की रक्षा सबसे बड़ी चीज थी।

pryas, प्रयास, यह भी खूब रही, yah bhi khoob rahi, नरेश का ब्लौग, प्रयास का ब्लौग, pryas ka blog, पुरानी कहानीयाँ, purani kahaniyan, विश्वास की रक्षा, अमर शहीद राम प्रसाद बिस्मिल, राम प्रसाद बिस्मिल, naresh ka blog, vishwas ki raksha, amar shahid ram prasad bismil, ram prasad bismil

कर्म और धर्म

डॉ. जीवराज मेहता गांधीजी के निजी चिकित्सक और सहयोगी थे। गांधीजी के विचारों का उन पर गहरा असर था। एक बार वह गांधीजी के साथ बड़ौदा से इलाहाबाद पहुंचे। गांधीजी के आने की सूचना पहले से थी इसलिए स्टेशन पर कार्यकर्ताओं की भारी भीड़ जमा थी। गांधीजी के हाथ खाली थे मगर मेहता जी के हाथ में एक अटैची थी। ट्रेन से उतरते ही एक कार्यकर्ता आगे बढ़ कर मेहता जी के हाथ से अटैची लेने लगा। मेहता जी ने उसे मना कर दिया। उसी समय मेहता जी की नजर एक अधेड़ महिला पर पड़ी, जिसकी गोद में एक छोटा बच्चा था। वह दूसरे हाथ से एक बक्सा संभाले हुई थी। उसे चलने में बहुत कठिनाई हो रही थी।

मेहता जी भीड़ को धक्का देते हुए उस महिला के पास पहुंचे और बोले, ‘बहन, आप को बहुत दिक्कत हो रही है। यह बक्सा मुझे दे दो। मैं आपको स्टेशन के बाहर तक छोड़ देता हूं।’ वह महिला संकोच करने लगी। उसे असमंजस में देख कर मेहता ने कहा, ‘घबराओ नहीं। मैं कोई चोर-उचक्का नहीं हूं। तुम्हारा सामान कहीं नहीं जाएगा।’ महिला ने अपना बक्सा मेहता जी को पकड़ा दिया। तब तक दूसरे लोग भी वहां आ गए। एक कार्यकर्ता मेहता जी के हाथ से बक्सा लेने लगा तो वह बोले, ‘यह बहुत हल्का है। मुझे कोई परेशानी नहीं हो रही है। तुम लोग उसकी मदद करो जिसको तुम्हारी मदद की जरूरत है। असहायों की सेवा करना ही हमारा कर्म और धर्म है।’ सब मेहता जी के व्यवहार से बेहद प्रभावित हुए।

संकलन: सुरेश सिंह
नवभारत टाइम्स में प्रकाशित

pryas, प्रयास, यह भी खूब रही, yah bhi khoob rahi, नरेश का ब्लौग, प्रयास का ब्लौग, pryas ka blog, पुरानी कहानीयाँ, purani kahaniyan, मयूर यूथ क्लब ब्लौग, मयूर यूथ क्लब, रामलीला ब्लौग, दिल्ली की रामलीला, कर्म और धर्म, डॉ. जीवराज मेहता, गांधीजी के निजी चिकित्सक, मदद करो, मदद की जरूरत, mayur youth club blog, ramlila blog, delhi ki ramlila, karam aur dharam, dr. jeevraaj mehta, gandhi ji ke niji chikitsak, madad karo, madad ki jaroorat, myc delhi, clubs in delhi, cultural club delhi