संगीत और संगीतकार


उस्ताद अलाउद्दीन खां के पास दूर-दूर से लोग संगीत सीखने और विचार-विमर्श के लिए आते थे। उनमें अमीर भी होते और गरीब भी। वह सभी को समान भाव से शिक्षा देते थे। एक बार वह अपने बगीचे में अत्यंत साधारण कपड़े पहने हुए काम कर रहे थे। हाथ-पांव मिट्टी से सने थे। उसी समय एक व्यक्ति बढि़या सूट-बूट पहने आया और खां साहब से बोला, ‘ऐ माली, उस्ताद कहां हैं। मुझे उनसे मिलना है।’ खां साहब ने पूछा, ‘क्या काम है?’ उस व्यक्ति ने कहा, ‘मुझे उनसे संगीत सीखना है।’ खां साहब ने कहा, ‘वह अभी आराम कर रहे हैं।’

उस व्यक्ति ने कहा, ‘जाकर उस्ताद से कहो कि कोई बड़ा आदमी आया है। जल्दी जा।’ खां साहब बोले, ‘आप इतना गुस्सा क्यों होते हैं हुजूर। अभी जाता हूं।’ वह चले गए। वह पिछले दरवाजे से घर में गए थे और थोड़ी देर में अगले दरवाजे से बाहर निकल रहे थे कि तभी एक कार आकर रुकी। उसमें रामपुर के राजा और कुछ लोग थे। वे लोग दरवाजे पर पहुंचे ही थे कि खां साहब बाहर आ गए।

राजा ने खां साहब के पैर छुए। यह देख कर उस व्यक्ति को समझ में आ गया कि यही उस्ताद अलाउद्दीन खां हैं। वह परेशान हो गया। उसने खां साहब से कहा, ‘हुजूर, मुझे आप को पहचानने में भूल हुई। मुझे माफ कर दें।’ खां साहब ने कहा, ‘तुमसे कोई भूल नहीं हुई है। जिनके पास दो पैसे आ जाते हैं वे गरीबों को इसी निगाह से देखते है। जहां तक रही संगीत सीखने की बात तो मैं तुम्हें संगीत सिखा नहीं सकता क्योंकि जिस आदमी के दिल में गरीबों के लिए कोई दर्द नहीं है, उसमें संगीत कभी जन्म नहीं ले सकता।’ उस व्यक्ति ने खां साहब को प्रलोभन भी दिया पर उन्होंने साफ इनकार करते हुए कहा, ‘संगीत रुपये-पैसे से नहीं खरीदा जाता। घमंड छोड़कर कड़ी मेहनत से ही उसे हासिल किया जा सकता है।’

संकलन: सुरेश सिंह
नवभारत टाइम्स में प्रकाशित

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