बलिदानी पुत्र देवायत

जूनागढ़ का पतन हो रहा था। राजा वीरता से युद्ध करते हुए रणक्षेत्र में सो चुके थे। महल में हाहाकार मच रहा था, किन्तू फिर भी पट्टन की सेनाएं दुर्ग को घेरे हुए थीं। सेना अंदर घुसकर राजा के पुत्र युवराज नौघड़ को पकड़कर मार डालना चाहती थी।

राजमंत्री ने दुर्ग का गुप्त द्वार खोला और रानी को राजकुमार के साथ बाहर निकाल दिया। रात्रि के घने अंधकार में अपने पुत्र को शत्रु के सैनिकों की आंखों से बचाती हुई रानी एक गरीब अहीर के द्वार पर खड़ी थी। उसका नाम देवायत था।
‘मुझे पहचानते हो भैया!’ रानी ने गृहपति से पूछा।
‘अपनी रानी माता को कौन नहीं पहचानेगा?’देवायत ने उत्तर दिया।
‘और इसे?’ रानी ने नौघड़ की ओर संकेत करते हुए देवायत से प्रश्न किया।
‘हां-हां क्यों नहीं?’ युवराज हैं न। कहिए, कैसे आगमन हुआ मेरी झोंपड़ी में? क्या आज्ञा है मेरे लिए? उसने हाथ जोड़कर प्रश्न किया।
‘हम तुम्हारी शरण में आए हैं भैया!’ रानी ने उत्तर दिया, ‘यह तो तुम्हें मालूम ही होगा कि जूनागढ़ का पतन हो चुका है और तुम्हारे महाराज मारे जा चुके हैं। अब शत्रु तुम्हारे इस युवराज की जान के ग्राहक हैं, वे इसकी खोज में हैं।’
‘आप चिंता न करें रानी माता!’ देवायत ने कहा, ‘अंदर आइए। मेरे घर में जो भी रूखा-सूखा है, वह सब कुछ आपका दिया हुआ ही तो है।’
देवायत ने रानी को अपने घर में आश्रय दिया। वह जानता था कि जूनागढ़ पर शत्रुओं का अधिकार हो चुका है और इसलिए राजवंश के किसी भी व्यक्ति का पक्ष लेना उसके लिए महान संकट का कारण बन सकता है, किन्तु वह राजपूत था और शरणागत के प्रति राजपूत के कर्तव्य को निभाना भी जानता था, और यही कारण था कि वह पहले रानी और युवराज को खिलाकर स्वयं पीछे खाता और उन्हें शैय्या पर सुलाकर स्वयं धरती पर सोता।
पर बात कब तक छिपती। आखिर शत्रु को अपने गुप्तचरों द्वारा पता लग ही गया कि जूनागढ़ की रानी और उनका पुत्र देवायत के घर में मेहमान हैं। अगले ही दिन पट्टन की सेनाओं ने देवायत के मकान को घेर लिया।
‘देवायत!’ सेनापति ने कड़ककर पूछा, ‘कहां है राजकुमार नौघड़?’
‘मुझे क्या पता अन्नदाता!’ देवायत ने हाथ जोड़कर नम्रता से उत्तर दिया।
‘झूठ न बोलो देवायत!’ सेनापति ने आंखें तरेरते हुए कहा, ‘नहीं तो कोड़ों की मार से शरीर की चमड़ी उधेड़ दी जाएगी।’
‘जो चाहे करो मालिक!’ देवायत ने उत्तर दिया,’ तुम्हारी इच्छा क्या है?’
‘अच्छा।’ सेनापति ने अपने सैनिकों की ओर देखते हुए कहा, ‘इसे बांध दो इस पेड़ से और देखो की घर में कौन-कौन हैं?’
देवायत को पेड़ से बांध दिया गया। सैनिक घर में घुसकर उसकी तलाशी लेने को तैयार होने लगे।
‘अब क्या होगा?’ देवायत मन ही मन सोचने लगा,’सामने ही तो बैठे हैं राजकुमार। कैसे बच पाएंगे वे इन यमदूतों के हाथों से।’
और दूसरे ही क्षण उसने एक मार्ग खोज लिया।
‘ठहरो।’ वह पेड़ से बंधा बंधा ही चिल्ला उठा, ‘ मैं ही बुलवाए देता हूं राजकुमार को।’
घर में घुसने वालों के कदम रुक गए। देवायत ने पत्नी को पास बुलाया और उसे संकेत से कुछ समझाया और फिर बोला, ‘जा, देख क्या रही है? नौघड़ को लाकर सेनापति के सामने खड़ा कर दे।’
पत्नी अंदर गई। नौघड़ और उसका पुत्र घर में एक साथ खेल रहे थे। उसने अपने पुत्र को उठाया,’ उसे छाती से लगाया, उसका मुख चूमा, उसे कुछ समझाया और फिर नौघड़ के वस्त्र पहनाकर वह सेनापति के सामने उसे बाहर ले आई।
‘क्या नाम है तुम्हारा?’ सेनापति ने पूछा। ‘ नौघड़।’ अहीर के पुत्र ने निर्भयता के साथ उत्तर दिया। और दूसरे ही क्षण सेनापति की तलवार से उसका सिर कटकर पृथ्वी पर जा गिरा।
शत्रु की सेनाएं देवायत को वृक्ष से खोलकर लौट गईं तो तब तक अपने आंसुओं को अपने नयनों में दबाए हुए अहीर दंपति बिलख उठे। रानी भी बाहर निकली और नौघड़ भी, किंतु वहां उन्होंने जो कुछ भी देखा उसे देखकर वे सबकुछ समझ गए।
‘यह तुमने क्या किया भैया!’ रानी चीख उठी।
‘वही, जो मुझे करना चाहिए था रानी माता! देवायत ने रोते हुए उत्तर दिया, मैं गरीब हूं तो क्या, हूं तो राजपूत ही।’ शरणागत के लिए बलिदान की ऐसी गाथाएं भारत के इतिहास की अपनी एक विशेषता है।

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हम चिल्लाते क्यों हैं गुस्से में?

एक बार एक संत अपने शिष्यों के साथ बैठे थे। अचानक उन्होंने सभी शिष्यों से एक सवाल पूछा। बताओ जब दो लोग एक दूसरे पर गुस्सा करते हैं तो जोर-जोर से चिल्लाते क्यों हैं?

शिष्यों ने कुछ देर सोचा और एक ने उत्तर दिया : हम अपनी शांति खो चुके होते हैं इसलिए चिल्लाने लगते हैं।

संत ने मुस्कुराते हुए कहा : दोनों लोग एक दूसरे के काफी करीब होते हैं तो फिर धीरे-धीरे भी तो बात कर सकते हैं। आखिर वह चिल्लाते क्यों हैं?

कुछ और शिष्यों ने भी जवाब दिया लेकिन संत संतुष्ट नहीं हुए और उन्होंने खुद उत्तर देना शुरू किया। वह बोले : जब दो लोग एक दूसरे से नाराज होते हैं तो उनके दिलों में दूरियां बहुत बढ़ जाती हैं। जब दूरियां बढ़ जाएं तो आवाज को पहुंचाने के लिए उसका तेज होना जरूरी है। दूरियां जितनी ज्यादा होंगी उतनी तेज चिल्लाना पड़ेगा। दिलों की यह दूरियां ही दो गुस्साए लोगों को चिल्लाने पर मजबूर कर देती हैं। वह आगे बोले, जब दो लोगों में प्रेम होता है तो वह एक दूसरे से बड़े आराम से और धीरे-धीरे बात करते हैं। प्रेम दिलों को करीब लाता है और करीब तक आवाज पहुंचाने के लिए चिल्लाने की जरूरत नहीं। जब दो लोगों में प्रेम और भी प्रगाढ़ हो जाता है तो वह खुसफुसा कर भी एक दूसरे तक अपनी बात पहुंचा लेते हैं। इसके बाद प्रेम की एक अवस्था यह भी आती है कि खुसफुसाने की जरूरत भी नहीं पड़ती। एक दूसरे की आंख में देख कर ही समझ आ जाता है कि क्या कहा जा रहा है।

शिष्यों की तरफ देखते हुए संत बोले : अब जब भी कभी बहस करें तो दिलों की दूरियों को न बढ़ने दें। शांत चित्त और धीमी आवाज में बात करें। ध्यान रखें कि कहीं दूरियां इतनी न बढ़े जाएं कि वापस आना ही मुमकिन न हो।

उत्तराखण्ड त्रासदी पर

शिव को दोष मत दे रे ऐ बेगैरत इंसान
दुषकर्मों का मिल रहा है ये तुझको ईनाम…1

uttarakhand flood 2013

शीश झुका मैं कर रहा था अपने शिव का ध्यान
तब चुपके से आया था वो नरभक्षी हैवान…2

आफत में जब पडी हुई थी उन लोगों की जान
मानवता को कुचल रहे थे तब भी कुछ शैतान…3

पर्वत नदीयाँ वृक्ष धरा ही हैं असली भगवान
इनकी रक्षा करके ही अब बच सकती है जान…4

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मेरा वैलैंटाइन – हास्य कविता

इस बार हमने सोचा
हम भी वैलैंटाईन डे मनायेंगे
अपनी मैडम को पिक्चर दिखायेंगे
हमारा भी तो दोस्तों में रुतबा बढेगा
घरेलू लडका है फिर कोई नहीं कहेगा
बस कर लिये दो टिकट ऐडवांस में बुक
श्रीमति जी के चेहरे का देखने लायक था लुक
मुस्कुराते हुए बोलीं कार्नर की ली हैं ना
हमने कहा हाँ एक दाहिना एक बाहिना.

तो हम भी पहुँच गये मैडम के संग
देखने सलमान की लेटेस्ट फिल्म दबंग
ये फिल्म देखना का मेरा पहला टैस्ट था
मैडम का सलमान में कुछ ज्यादा ही इंट्रस्ट था
वो बाहर से तो हम पर ही मर रही थी
पर तारिफ सलमान की ही कर रही थी

फिल्म का जैसे ही हुआ इंटरवल
मैडम जी के माथे पर आ गये बल
गुस्से में बोली, “आज के दिन भी भूखा मारोगे”
जेब में रखे पैसों की क्या आरती उतारोगे
पूरा सिनेमा हाल हमें लानत भेज रहा था
फिल्म के इंटरवल में हमारा ट्रेलर देख रहा था

हम फौरन कैंटीन की तरफ दौडे
ना ब्रैड दिखे ना ही पकौडे
चारों तरफ बस माल ही माल दिख रहा था
हर काउंटर पर पापकार्न और पिज्जा ही बिक रहा था
कुछ देर तक आँखें सेकीं और दिल ठंडा किया
फिर धर्मपत्नी जी के लिये एक ठंडा लिया

ठंडा लेकर हाल में हम जैसे ही पहुँचे
श्रीमति जी पिल पडी बिना कुछ सोचे
बडे प्यार से मुझे डांट कर बोली
अभी तक ठंडे की बोतल भी नहीं खोली
हम बोले सलमान खान से ध्यान हटाओ
बोतल खुली है अब इस पर ध्यान लगाओ

ठंडा पीते ही मैडम गुर्राई
ये ठंडा है या गर्म मेरे भाई
लो जी अब तो कमाल हो गया
सलमान के सामने मैं भाई हो गया
मैंने चुपचाप से सौरी का सहारा लिया
गर्म होते मामले का वहीं निपटारा किया

जैसे तैसे सलमान की दबंगई हुई खत्म
हमारे अंदर भी आ गया थोडा सा दम
धर्मपत्नी बोली अब क्या दिलवाओगे
हम बोले अभी तक क्या दिलवाया है?
वो बोली ज्यादा मजाक नहीं चलेगा
घर जाकर धोऊं या यहीं पिटेगा?

हमने चुपचाप चुप्पी साध ली
सीधे अपने घर की राह ली
आज हमें एक शिक्षा मिली थी
कि वैलंटाईन हो या करवा चौथ
रक्षा बंधन हो या भैया दौज
सब प्यार मौहब्बत ही फैलाते हैं
और इनका मजा तब ही आता है
जब आप इन्हें घर पर ही मनाते हैं

घर पर ना होगी सलमान की दबंगाई
और ना होगी बाजार में आपकी पिटाई

 

दिल्ली पुलिस – जाँच का तरीका

पूर्वी दिल्ली में एक डी.डी.ए. की कालोनी है मयूर विहार, फेज-1. यूं तो मयूर विहार, फेज-2 और  3 भी हैं. लेकिन फेज-1 इनमें सबसे पुरानी कालोनी है. इस मयूर विहार में एक छोटा सा नर्सिंग होम है कुकरेजा नर्सिंग होम. यहाँ 24 घंटे बीमार लोगों की आवाजाही लगी रहती है.

यह नर्सिंग होम थाना पांडव नगर के अन्तृगत आता है. पिछले कुछ दिनों से मैंने यहाँ एक अजीब बात देखी. वैसे पूरी दिल्ली में दिल्ली पुलिस ने बाईकर्स के खिलाफ जंग छेड रखी है. कागज पूरे ना पाये जाने पर या तो उन्हें बंद किया जा रहा है या उनका चालान किया जा रहा है. अच्छी बात है, अपराधी तत्व इन बाईकों पर बैठ कर राहजनी, लूटपाट और चेन छपटने में उस्ताद हो गये हैं.

लेकिन जो नजारा मैंने कुकरेजा नर्सिंग होम पर देखा वह अद्भुत पाया. वाहन चेकिंग के लिये दिल्ली पुलिस बैरिकेटिंग करके वाहन चैक करती है. लेकिन यहाँ पुलिस को इतनी मेहनत भी नहीं करनी पडती. यह नर्सिंग होम एक मोड पर बना हुआ है और सामने ही एक डिसपैन्सरी भी है. पुलिस की मिलीभगत से यहाँ बहुत से ठेले वाले खडे रहते हैं. और इसके अतिरिक्त मयूर विहार, फेज-1 के पाकेट-5 पर जाने के लिये एक मुख्य सडक भी है. कुल मिला कर यहाँ बहुत ही भीड रहती है और आपको अपनी गाडी की स्पीड ना चाहते हुए भी धीरे करनी ही पडेगी. और हाँ यहाँ दिनभर एमबुलैन्स की आवाजाही भी लगी रहती है.

तो जी, अब पुलिस वालों को ये मोड जंच गया. अब वो यहाँ वाहन चैकिंग के लिये कोई बैरिकेटिंग नहीं करते और ना ही यहाँ 4-5 पुलिस वालों की आवश्यकता पडती. केवल दो पुलिस वाले चुप-चाप बाईक में यहाँ आते हैं और एक चाय वाले के यहाँ बीडी व चायपान करते हैं. इस खास नाश्ते के बाद इनकी फुर्ती देखने लायक होती है.

ये चुप-चाप चाय की दुकान में खडे रहते हैं और जैसे ही कोई मरीज आता है तो जाहिर सी बात है कि दो-चार लोग और साथ में आते हैं. और यदि ये लोग स्कूटर या बाईक पर होते हैं तो पुलिस वाले चुपचाप उनके पास चले आते हैं और फिर आवश्यक कागज और हेलमेट क्यों नहीं पहना से जेब गर्म करने की भूमिका बनाई जाती है. अब बेचारे लोग आपातस्तिथी के कारण हेलमेट ना पहनपाने या कागज ना लापाने की बात समझाने की नाकाम कोशिश करते हैं. लेकिन पुलिस वालों के कान तो भर्ती के समय ही बंद कर दिये जाते हैं. केवल बोलना है ही सिखाया जाता है इन्हें, और बोलना क्या बल्कि डांटना या धमकाना कहिये जनाब!

अब जो जैसा मिल जाये उसी के हिसाब से अस्पताल के बाहर ही उन तिमारदारों का ईलाज कर दिया जाता है. अब तिमारदार भी कुछ ले-देकर मामला रफा-दफा करने को प्राथमिकता देते हैं. अपने मरीज को भर्ती जो करवाना है. और यदि कोई व्यक्ति फुरसत में हो और पैसे देने में आनाकानी करे तो बस सीधा कोर्ट का चालान.

यह पूरी कार्यवाही सुरक्षा की दृष्टि से की गई हो ऐसा समझने का मैने भरसक प्रयास किया लेकिन सफल ना हो सका. यकीन मानिये मैंने एक दिन हिम्म्त करके उनसे पूछा कि आप सीधी तरह से सडक पर खडे होने के स्थान पर चाय वाले के पास क्यों खडे रहते हैं. तो उनका जवाब था कि लोग हमें देख कर भाग जाते हैं. और इसीलिये आप रोगीयों के रिश्तेदारों को निशाना बना रहे हैं – मैंने झट से कहा. क्यों इब तू काम सिखायगा हमैं. लिकड ले यहाँ सै. अर नहीं तो तेरेई पडलैगा एक-आधा. आया रोगीयन का ठेकेदार – जैसी लताड सुनने को मिली.

अब ये क्या तरीका है. सुरक्षा के नाम पर वाहन चैकिंग करते पुलिस वालों को देखकर जहाँ मैं सुरक्षित महसूस करता था, वहीं उनके इस रैवैये को देखकर मेरे मन में दिल्ली पुलिस की रही सही छवि और भी खराब हो गयी.

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जीवन की नाव

एक संत थे। उनके कई शिष्य उनके आश्रम में रहकर अध्ययन करते थे। एक दिन एक महिला उनके पास रोती हुए आई और बोली, ‘बाबा, मैं लाख प्रयासों के बाद भी अपना मकान नहीं बना पा रही हूं। मेरे रहने का कोई निश्चित ठिकाना नहीं है। मैं बहुत अशांत और दु:खी हूं। कृपया मेरे मन को शांत करें।’

उसकी बात पर संत बोले, ‘हर किसी को पुश्तैनी जायदाद नहीं मिलती। अपना मकान बनाने के लिए आपको नेकी से धनोपार्जन करना होगा, तब आपका मकान बन जाएगा और आपको मानसिक शांति भी मिलेगी।’ महिला वहां से चली गई। इसके बाद एक शिष्य संत से बोला, ‘बाबा, सुख तो समझ में आता है लेकिन दु:ख क्यों है? यह समझ में नहीं आता।’

उसकी बात सुनकर संत बोले, ‘मुझे दूसरे किनारे पर जाना है। इस बात का जवाब मैं तुम्हें नाव में बैठकर दूंगा।’ दोनों नाव में बैठ गए। संत ने एक चप्पू से नाव चलानी शुरू की। एक ही चप्पू से चलाने के कारण नाव गोल-गोल घूमने लगी तो शिष्य बोला, ‘बाबा, अगर आप एक ही चप्पू से नाव चलाते रहे तो हम यहीं भटकते रहेंगे, कभी किनारे पर नहीं पहुंच पाएंगे।

उसकी बात सुनकर संत बोले, ‘अरे तुम तो बहुत समझदार हो। यही तुम्हारे पहले सवाल का जवाब भी है। अगर जीवन में सुख ही सुख होगा तो जीवन नैया यूं ही गोल-गोल घूमती रहेगी और कभी भी किनारे पर नहीं पहुंचेगी। जिस तरह नाव को साधने के लिए दो चप्पू चाहिए, ठीक से चलने के लिए दो पैर चाहिए, काम करने के लिए दो हाथ चाहिए, उसी तरह जीवन में सुख के साथ दुख भी होने चाहिए।

जब रात और दिन दोनों होंगे तभी तो दिन का महत्व पता चलेगा। जीवन और मृत्यु से ही जीवन के आनंद का सच्चा अनुभव होगा, वरना जीवन की नाव भंवर में फंस जाएगी।’ संत की बात शिष्य की समझ में आ गई।

 

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पेशे की इज्जत

यह घटना उन दिनों की है जब फ्रांस में विद्रोही काफी उत्पात मचा रहे थे। सरकार अपने तरीकों से विद्रोहियों से निपटने में जुटी हुई थी। काफी हद तक सेना ने विद्रोह को कुचल दिया था , फिर भी कुछ शहरों में स्थिति खराब थी। इन्हीं में से एक शहर था लिथोस। लिथोस में विद्रोह पूर्णतया दबाया नहीं जा सका था , लिहाजा जनरल कास्तलेन जैसे कड़े अफसर को वहां नियंत्रण के लिए भेजा गया। कास्तलेन विद्रोहियों के साथ काफी सख्ती से पेश आते थे।

इसलिए विद्रोहियों के बीच उनका खौफ भी था और वे उनसे चिढ़ते भी थे। इन्हीं विद्रोहियों में एक नाई भी था , जो प्राय : कहता फिरता – जनरल मेरे सामने आ जाए तो मैं उस्तरे से उसका सफाया कर दूं। जब कास्तलेन ने यह बात सुनी तो वह अकेले ही एक दिन उसकी दुकान पर पहुंच गया और उसे अपनी हजामत बनाने के लिए कहा। वह नाई जनरल को पहचानता था। उसे अपनी दुकान पर देखकर वह बुरी तरह घबरा गया और कांपते हाथों से उस्तरा उठाकर जैसे – तैसे उसकी हजामत बनाई।

काम हो जाने के बाद जनरल कास्तलेन ने उसे पैसे दिए और कहा – मैंने तुम्हें अपना गला काटने का पूरा मौका दिया। तुम्हारे हाथ में उस्तरा था , मगर तुम उसका फायदा नहीं उठा सके। इस पर नाई ने कहा – ऐसा करके मैं अपने पेशे के साथ धोखा नहीं कर सकता था। मेरा उस्तरा किसी की हजामत बनाने के लिए है किसी की जान लेने के लिए नहीं। वैसे मैं आपसे निपट लूंगा जब आप हथियारबंद होंगे। लेकिन अभी आप मेरे ग्राहक हैं। कास्तलेन मुंह लटकाकर चला गया।

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क्रोध से नुकसान

अहं नामक व्यक्ति को बहुत गुस्सा आता था। वह जरा – जरा सी बात पर क्रोधित हो जाता था। वह उच्च शिक्षित और उच्च पद पर आसीन था। उसके क्रोध को देखकर एक सज्जन ने उसे सुदर्शन नामक ऋषि के आश्रम में जाने को कहा। अहं ने उस सज्जन की यह बात सुनते ही उसे गुस्से से घूरा और बोला , ‘मैं क्या पागल हूं जो सदुर्शन ऋ षि के आश्रम में जाऊं?

मैं तो सर्वश्रेष्ठ हूं और मेरे आगे कोई कुछ नहीं है। ‘ उसकी इस बात को सुनकर सज्जन वहां से चला गया। धीरे – धीरे सभी अहं से दूर – दूर रहने लगे। उसे भी इस बात का अहसास हो गया था। एक दिन वह बेहद क्रोध में सुदर्शन ऋ षि के आश्रम में जा पहुंचा। सुदर्शन ऋषि ने अहं के क्रोध के बारे में सुन रखा था। उन्होंने उसके क्रोध को दूर करने की मन में ठानी। वह जानबूझकर बोले , ‘ कहो नौजवान कैसे हो ? तुम्हें देखकर तो प्रतीत होता है कि तुममें दुर्गुण ही दुर्गुण भरे हुए हैं। ‘

सुदर्शन ऋषि की बात सुनकर अहं को बेहद क्रोध आया । क्रोध में उसकी मुट्ठियां भिंच गईं और वह दांत पीसते हुए सुदर्शन ऋ षि के साथ सबको अनाप – शनाप बकने लगा। क्रोध में उसकी उल्टी – सीधी बातें सुनकर आश्रम में अनेक लोग एकत्रित हो गए किंतु किसी ने भी उसे कुछ नहीं कहा । बोल – बोलकर जब वह थक गया तो चुपचाप नीचे बैठ गया।

बेवजह क्रोध में बोलकर उसका सिर दर्द हो गया था और गला भी सूख गया था। उसकी ऐसी स्थिति देखकर सुदर्शन ऋ षि बोले ,’ कहो नौजवान क्त्रोध ने तुम्हारे सिवाय किसी और का अहित किया है। सभी दुर्गुण पहले स्वयं को विनाश के कगार पर लेकर आते हैं। तुम्हारे क्रोध ने तुमको सबसे दूर कर दिया है जबकि तुम अत्यंत ज्ञानी एवं शिक्षित व्यक्ति हो। ‘ ऋ षि की सारी बातें अहं ने सुनी और उसे अपनी गलती का पश्चाताप् हुआ। उसने उसी दिन से अपने व्यक्तित्व में से क्रोध को दूर करने का निश्चय कर लिया।

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अमरत्व का फल

एक दिन एक किसान बुद्ध के पास आया और बोला, ‘महाराज, मैं एक साधारण किसान हूं। बीज बोकर, हल चला कर अनाज उत्पन्न करता हूं और तब उसे ग्रहण करता हूं । किंतु इससे मेरे मन को तसल्ली नहीं मिलती। मैं कुछ ऐसा करना चाहता हूं जिससे मेरे खेत में अमरत्व के फल उत्पन्न हों। आप मुझे मार्गदर्शन दीजिए जिससे मेरे खेत में अमरत्व के फल उत्पन्न होने लगें।’

बात सुनकर बुद्ध मुस्कराकर बोले, ‘भले व्यक्ति, तुम्हें अमरत्व का फल तो अवश्य मिल सकता है किंतु इसके लिए तुम्हें खेत में बीज न बोकर अपने मन में बीज बोने होंगे?’ यह सुनकर किसान हैरानी से बोला, ‘प्रभु, आप यह क्या कह रहे हैं? भला मन के बीज बोकर भी फल प्राप्त हो सकते हैं।’

बुद्ध बोले, ‘बिल्कुल हो सकते हैं और इन बीजों से तुम्हें जो फल प्राप्त होंगे वे वाकई साधारण न होकर अद्भुत होंगे जो तुम्हारे जीवन को भी सफल बनाएंगे और तुम्हें नेकी की राह दिखाएंगे।’ किसान ने कहा , ‘प्रभु, तब तो मुझे अवश्य बताइए कि मैं मन में बीज कैसे बोऊं?’ बुद्ध बोले, ‘तुम मन में विश्वास के बीज बोओ, विवेक का हल चलाओ, ज्ञान के जल से उसे सींचो और उसमें नम्रता का उर्वरक डालो। इससे तुम्हें अमरत्व का फल प्राप्त होगा। उसे खाकर तुम्हारे सारे दु:ख दूर हो जाएंगे और तुम्हें असीम शांति का अनुभव होगा।’ बुद्ध से अमरत्व के फल की प्राप्ति की बात सुनकर किसान की आंखें खुल गईं। वह समझ गया कि अमरत्व का फल सद्विचारों के द्वारा ही प्राप्त किया जा सकता है।

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गुरु का संदेश

छत्रपति शिवाजी ने अपने पराक्रम से अनेक लड़ाइयां जीतीं। इससे उनके मन में थोड़ा अभिमान आ गया। उन्हें लगता था कि उनके जैसा वीर धरती पर और कोई नहीं है। कई बार उनका यह अभिमान औरों के सामने भी झलक पड़ता। एक दिन शिवाजी के महल में उनके गुरु समर्थ रामदास पधारे। शिवाजी वैसे तो रामदास का काफी आदर करते थे लेकिन उनके सामने भी उनका अभिमान व्यक्त हो ही गया, ‘गुरुजी अब मैं लाखों लोगों का रक्षक और पालक हूं। मुझे उनके सुख-दुख और भोजन-वस्त्र आदि की काफी चिंता करनी पड़ती है।’

रामदास समझ गए कि उनके शिष्य के मन में राजा होने का अभिमान हो गया है। इस अभिमान को तोड़ने के लिए उन्होंने एक तरकीब सोची। शाम को शिवाजी के साथ भ्रमण करते हुए रामदास ने अचानक उन्हें एक बड़ा पत्थर दिखाते हुए कहा, ‘शिवा, जरा इस पत्थर को तोड़कर तो देखो।’ शिवाजी ने गुरु की आज्ञा का पालन करते हुए तत्काल वह पत्थर तोड़ डाला। किंतु यह क्या, पत्थर के बीच से एक जीवित मेंढक एक पतंगे को मुंह में दबाए बैठा था।

इसे देखकर शिवाजी चकित रह गए। समर्थ रामदास ने पूछा, ‘पत्थर के बीच बैठे इस मेंढक को कौन हवा-पानी दे रहा है? इसका पालक कौन है? कहीं इसके पालन की जिम्मेदारी भी तुम्हारे कंधों पर तो नहीं आ पड़ी है?’ शिवाजी गुरु की बात का मर्म समझकर लज्जित हो गए। गुरु ने उन्हें समझाया, ‘पालक तो सबका एक ही है और वह परम पिता परमेश्वर। हम-तुम तो माध्यम भर हैं। इसलिए उस पर विश्वास रखकर कार्य करो। तुम्हें सफलता अवश्य मिलेगी।’

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