2 अक्तुबर (2009), शुक्रवार को छुट्टी थी. तीन दिनों का लबा सप्ताहांत. हम तीन दोस्त मै, रमेश और महेन्द्र ने झटपट घूमने का प्रोग्राम बनाया. कहां जाया जाये – यह सोचना हमेशा की तरह मेरे हिस्से मे ही आया. हरिद्वार, ऋषिकेष, मंसूरी, शिमला घूम-घूम कर हम बोर हो चुके थे. भरतपुर जाने का हमारा प्रोग्राम कई बार रद्द हो चुका था इसलिये इस बार वहीं जाने का एलान कर दिया.
जाने की टिकिट बुक नहीं थी. निजामुद्दीन से ताज एक्सप्रैस पकडकर हम पहले मथुरा जंकश्न तक गये (टिकिट 50 रूपय). दिल्ली से मथुरा तक करीब दो घंटे लगते हैं. वहां से निजामुद्दीन से ही आने वाली गोलडन टैम्पल में भरतपुर का जनरल टिकिट लेकर स्लीपर कोच मे सवार हो लिये (टिकिट 28 रूपय). भरतपुर मथुरा से अगला स्टेशन ही है और दूरी है करीब तीस किलोमीटर है .केवल आधा घंटा लगता है. ट्रेन में सवार होते ही सबसे पहले मुलाकात हुई टी. टी. साहब से जिसका अंदेशा मुझे पहले से ही था. टी. टी. साहब ने जनरल टिकिट लेकर स्लीपकर में यात्रा करने के उपलक्ष में जुर्माने की ईनामी राशि 1200 रूपय घोषित कर दी. बाद मे केवल एक व्यक्ती का जुर्माना – तीन सौ पचास रूपय देने पर बात बन गयी. जुर्माना देने के बाद थोडी शांती मिली. हालांकि रिश्व्त देने की नाकाम कोशिश भी की गई लेकिन कुछ फायदा ना हो सका. सिविल ड्रैस के टी. टी. को देख कर एक बार तो लगा की नीरज जाट जी की तर्ज पर इससे आई-कार्ड पूछ ही लूं. लेकिन फिर 1200 रूपय का ध्यान आते ही विचार बदल गया.
पौने ग्यारह बजे हम भरतपुर के स्टेशन की शोभा बढा रहे थे. यह पांच प्लेटफार्म वाला एक छोटा सा स्टेशन है. प्यास बहुत जोर से लग रही थी. ठंडे पानी का कूलर स्टेशन पर लगा हूआ था. पानी पिया तो बहुत ही खारा था पानी पिया ही नही गया. स्टेशन से बाहर निकले तो बहुत से ओटो वाले खडे हुए थे. भरतपुर में रस्सी से स्टार्ट होने वाले ओटो बहुत हैं.
हमने चालीस रूपय में केवलादेव पार्क के लिये ओटो किया. भरतपुर मे सडकों की हालत बहुत खस्ता है. जगह-जगह गढ्ढे और टूटी सडक के ही दर्शन होते हैं. स्टेशन से बाहर निकलते ही हलवाई की दुकानें नजर आईं जहाँ खजला बिक रहा था. खजला एक तरह का पकवान है जो मैदे से बनता है. यह फीका और मीठा दोनो तरह का होता है. देखने मे यह एक बडे आकार का भठुरे जैसा दिखता है.
खजला
बारह बजे हमने केवलादेव पार्क के सामने बने होटल “द पार्क रिजैन्सी” में प्रवेश किया.
Hotel The Park Bharatpur
बाहर से देखने में यह होटल बहुत ही शानदार दिखता है. यहां हमे एक एसी डबल बैडरूम कमरा 850 रूपय मे मिल गया. हम तीन लोग थे सो ज्यादा मंहगा नहीं लगा. होटल में घुसते ही तबीयत प्रसन्न हो गेई. रूम बहुत ही खुला और बडा था. रूम के सामने बहुत बडा पार्क था जिसमें बहुत सी टेबल और चेयर लगी हुई थीं. अक्तुबर से मार्च तक यहां सीजन रहता है शायद इसीलिये होटल को रैनोवेट भी किया जा रहा था. रूम मे एक बडा सा टीवी और छोटा सा फ्रिज भी था. हमारे होटल के बिल्कुल सामने था होटल प्रताप पैलेस.
Hotel Pratap Palace Bharatpur
भूख बहुत लगी थी इसलिये फटाफट बटर चिकन (160 रूपय हाफ) और बटर नान (25 रूपय) आर्डर कर दिया. बटर चिकन लजवाब था और नान भी बहुत सौफ्ट थे. दोपहर का खाना खा कर हमने सबसे पहले केवलादेव पार्क जाने का निश्चय किया. लेकिन वेटर ने हमें बताया कि वहां जाने का यह सही समय नहीं है. वहां सुबह-सुबह जाना चाहिये. सुबह पक्षी खाने की तलाश में बाहर निकलते हैं. लेकिन हमें उसकी बात पसंद नहीं आयी और हम सीधा निकल लिये पार्क की तरफ. इस पार्क को यहां घना (dense) के नाम से ज्यादा जाना जाता है.
होटल से बाहर निकलते ही रिक्शे वाले पीछे पड गये. लेकिन हम रिक्शा केवल पार्क के बाहर से ही लेना चाहते थे. मुझे पता था कि सरकार द्वारा लाइसेंस शुदा रिक्शे केवल पार्क के बाहर से ही मिलते हैं. लेकिन बाद में पता चला कि यहां 123 रिक्शे वालों का ग्रुप है जो तीन भागों में बंटा हुआ है. एक ग्रुप पार्क के बाहर, एक पार्क के अंदर चैक पोस्ट पर और एक ग्रुप पार्क के बाहर बने होटलों पर सैलानीयों का इंतजार करता है. अपने रिक्शे चालक राजू और इन्दर से पूछने पर पता चला की इनकी कार्य प्रणाली बहुत ही साधारण है. ये सुबह पांच बजे पार्क के गेट पर इक्ठ्ठा होते हैं और 1 से लेकर 123 नम्बर तक की पर्चीयां बनाते हैं. जिसके हिस्से जो पर्ची आती है बस वही उसका नम्बर होता है.
राजू और ईन्दर हमें लेकर पार्क में चल दिये. यहाँ बीडी-सिगरेट पीने पर सख्त मनाही है. बीडी-सिगरेटे से जंगल में आग का खतरा बना रहता है. लेकिन फिर भी कुछ लोग ईधर-उधर छुप कर सिगरेट पी रहे थे. राजू और ईन्दर हमें बार-बार दूरबीन किराये पर दिलवाने की जिद कर रहे थे. लेकिन हमने साफ मना कर दिया.
बातों-बातों में पता चला कि ईन्दर दिल्ली में मेरे घर के पास त्रिलोक पुरी का रहने वाला था. और 84 के दंगों में परिवार के साथ यहाँ आ गया था. ये पता चलने के बाद ईन्दर ने हमें अपने रिक्शे में रखी गयी दूरबीन फ्री में दे दी. दोनों रिक्शे वालों ने हमें बताया कि उनकी यहाँ ट्रेनिंग होती है और उन्हें ईंग्लिश के साथ-साथ बहुत सी यूरोपीयन भाषाओं की जानकारी भी दी जाती है. उन्होंने हमें ईंग्लिश, जर्मनी, स्पैनिश, जापानी आदि भाषाओं में बहुत सी बातें बोल कर भी बताईं. सुनने में यह सब अच्छा लग रहा था. लेकिन बाहर के सैलानीयों से टिप लेने का ये अच्छा साधन है. यहाँ एक बात और देखी कि लोकल टूरिस्ट के आने पर रिक्शे वाले ज्यादा खुश नहीं होते. क्योंकि उन्हें उनसे टिप नहीं मिलती.
बहुत प्यास लगी हैबन्दर फोन की तार ठीक कर रहा है
राजू और ईन्दर ने हमें पार्क में एक मन्दिर भी दिखाया. उस मन्दिर में हमें एक तालाब में बहुत बडे-बडे कछुए दिखे उन्हें हमने आटे की बडी-बडी गोलीयाँ भी खिलायीं. वो कछुए बिल्कुल आदमखोर लग रहे थे. मन्दिर के पुजारी ने हमें बताया कि एक बार एक नील गाय इस तालाब में गिर गयी तो ये कछुए आधे घंटे में उसे चट कर गये.
कछुएआदमखोर कछुएपार्क में सूर्यास्त
शाम को करीब सात बजे तक हम पार्क घूम चुके थे. वापस आते समय रास्ते में हमें दो सियार भी दिखे. राजू और ईन्दर ने हमें होटल छोडा दिया. हमने उन्हें रू. 600/- दिये जिसमें रिक्शे का किराया और टिप भी शामिल थी.
Raju aur Inder Bharatpur
अगले दिन हम भरतपुर के लोहागढ किले को देखने गये. यह किला भरतपुर जाट शासकों द्वारा निर्मित किया गया था. दुनिया में यह किला अभी तक अभेद है. इसे अभी तक जीता नहीं जा सका है. इस किले में एक म्यूसियम भी है जिसमें जाट शासकों के चित्र, पांडुलिपी, हथियार बंदूकें आदि रखीं हैं.
करीब चार बजे हम वापिस होटल पहुँच चुके थे. होटल आते ही हमें वापसी की टिकीट बुक करवानी थी. होटल में इंटरनैट की सुविधा नहीं थी और आस-पास कोई साईबर कैफे भी नहीं मिला. तब हमने दिल्ली के एक मित्र को फोन करके कोटा जनशताब्दी 2059 (अब 12059) में तीन सीट बुक करवादी. और बडी मुश्किल से एक साईबर कैफे से टिकीट का प्रिंट निकाला.
अब वापसी कि चिंता खत्म थी. शाम को किसी ने हमें बताया कि पास में ही दशहरा-मेला लगा हुआ है. हमने एक ट्रैक्टर रोका और बिना पूछे ही उस पर चढ गये. उसने हमें बताया कि वो भी मेले में ही जा रहा है. बस सुनकर मजा आ गया. मेले में सबसे पहले हम पहुँचे मौत का कुँआ देखने. हालत खराब हो गयी. कितना रिस्क है उसमें. लेकिन रोजी-रोटी के लिये लोग सब कुछ करते हैं.
आप मेले की कुछ फोटो देखीये.
ट्रैक्टर की फ्री सवारीदशहरा मेला भरतपुरमेले में भी खजला ही खजला थादशहरा मेला भरतपुरमेले का मजा
अगले दिन हमने कोटा जनशताब्दी पकडी जो करीब डेढ घंटा लेटे थी. जन शताब्दी में पहली बार सफर किया था मुझे अच्छा लगा. लेकिन वहाँ हिजडे लोगों से खुले आम पैसे मांग रहे थे. लेकिन हम लोगों ने उन्हें पैसे नहीं दिये. हालांकि उन्होंने बहुत कोशिश की लेकिन हम सख्ती से पेश आये और उनकी दाल नहीं गलने दी. करीब डेढ बजे हम निजामुद्दीन पहुँच चुके थे.
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संतोषी माता मंदिर में कुछ समय बिताने के बाद हम लौट चले. लौटते हुए एक नया सा रास्ता दिखा. हम दोनों ने काफी अटकलें लगाने के बाद उस रास्ते पर चलना शुरू कर दिया. कुछ ही देर में हम भुल्ला ताल पहुँच चुके थे. बिना पूछे रास्ता मिल गया. संतोषी माता का आशिर्वाद था शायद. भुल्ला ताल एक कृत्रिम ताल है. इसका रखरखाव गढवाल राईफ्ल्स द्वारा किया जाता है. यहाँ एक बच्चों का पार्क भी है जिसमें झूले लगे हैं. ताल में बोटिंग का मजा भी लिया जा सकता है. यहाँ की सुंदरता देखते ही बनती है. हम काफी देर तक यहाँ के नजारों मजा लूटते रहे. पिकनिक के लिये एक आदर्श स्थान है भुल्ला ताल.
समय ज्यादा नहीं हुआ था लेकिन भूख अपने चरम पर थी. भुल्ला ताल को अलविदा कह कर घर की तरफ निकल पडे. लैंसडौन की प्राकृतिक छटा से मैं बहुत प्रभावित हुआ. रास्ते में बहुत से लोग रास्ते पूछते हुए मिले. हमने भी एक आदर्श दिल्ली वालों की तरह उन्हें मना नहीं किया और अपनी बुद्धिनुसार उनका मार्ग दर्शन किया. कोहरा बहुत हो रहा था फिर भी नीरज फोटो खींचने में कोताही नहीं बरत रहा था.
घर पहुँचते ही गर्मागर्म दाल-भात और बैंगन की सब्जी मिली. देखते ही भूख दोगुनी हो गई. खाना खाने में आनन्द आ गया. पहाडों पर मैंने एक बात नोट की है यहाँ खाना बहुत जल्दी पच जाता है और भूख भी बहुत लगती है. खान खा कर कुछ देर आराम किया. नीरज वैसे तो आराम कर रहा था लेकिन उसके पैर घुमने के लिये मचल रहे थे. मेरे ईरादे कुछ और ही थे. मैं फ्रैश होना चाहता था. यहाँ पानी एक बडी समस्या है. बहुत जद्दोजहत के बाद काम तो बन गया लेकिन फिर भी नहाना नसीब नहीं हुआ.
चाय पीने के बाद हम फिर निकल पडे नयी जगह ढुंढने. हमारा लक्ष्य था दुर्गा देवी मंदिर. एक फौजी से रास्ता पूछा तो उसने पहले हमारा ही इंटरव्यू ले डाला. कहाँ से आये हो? कहाँ रूके हो? रास्ते में स्कूल, मैस आदि देखते हुए हम दुर्गा देवी मंदिर पहुँच गये. इतनी सफाई और सुदरता देख कर और अपनी हालत देख कर एक बार तो लगा की अंदर ना ही जायें तो अच्छा है. लेकिन फिर भी हिम्म्त कर के हमने अंदर प्रवेश किया. मंदिर के अंदर के द्रश्य का वर्णन करना मुश्किल है. भारत में मंदिरों की सफाई का आलम हमसे छुपा नहीं है. मंदिर में पुजारी के स्थान पर एक फौजी साफ सफाई में व्यस्त था. दुर्गा देवी मंदिर के अन्दर और बहार का नजारा अनुभव करने लायक था. दोनों ने बहुत सी फ़ोटो खींची और लौट चले.
दुर्गा देवी मंदिर
नीरज – मंदिर के दरवाजे पर
रास्ता भटकने में कोई हमारी बराबरी नहीं कर सकता. जी हाँ, रास्ता एक बार फिर भटक चुके थे. एक सज्जन से रास्ता पूछा और इस बार हम पहुँच गये कालेशवर मंदिर. रास्ते से चलने के बजाय यहाँ-वहाँ कूद कर हम लोग मंदिर के प्रांगण मे पहुँच गये. बहुत ही प्राचीन मंदिर था ये. अंदर कोई पुजारी नहीं था. लेकिन दूर एक कोने में बैठे कुछ फौजीयों की हम पर नजर थी.
पढिये कालेशवर मंदिर के बारे में
कालेशवर मंदिर
मंदिर में घंटीयाँ
मंदिर के अन्दर काफी अंधेरा था और यहाँ भी जगह-जगह बहुत सी घंटीयाँ लगी थीं. फोटोसेशन के बाद मंदिर की सीढियों से होते हुए हम घर की तरफ निकल पडे. सवा चार बज चुके थे.
घर पहुँचते ही सामान उठाया, घर के मालिक को धन्यवाद दिया और निकल पडे गाँधी चौक जीप स्टैंड की तरफ. जीप तैयार खडी थी. करीब साढे छै बजे कोट्द्वार स्टेशन से एक लोकल ट्रेन नजीबाबाद के लिये पकडी. वहाँ से बस द्वार रात करीब एक बजे घर के दरवाजे पर दस्त्ख दी.
वैसे मैं कई बार लैंसडौन गया हूँ. लेकिन इस बार नीरज – मुसाफिर के साथ होने से यह सफर यादगार रहा.
हम कोटद्वार साढे छै: बजे पहुँच गये थे. कोटद्वार एक छोटा सा स्टेशन है. यहाँ से बाहर निकलते ही जीप मिल गई. चालीस रूपय किराया था पाँच साल पहले. आज भी चालीस रूपय ही था, यहाँ नहीं आई महँगाई. वैसे स्टेशन से कुछ दूर ही ट्रांसपोर्ट नगर है जहाँ से दिन भर लैंसडौन के लिये जीप और बसें मिल जाती हैं. बस का किराया करीब तीस रूपय है. नीरज और मैं दोनों डिक्की में सैट हो गये. कुछ ही देर में जीप निकल पडी अपने पर्वतीय रास्तों पर.
कोटद्वार से करीब 18-20 कि.मी. के बाद दुगड्डा आता है. सिलगढ एवं लंगूरगढ के बीच स्थित होने के कारण इस शहर का दुगड्डा पडा. दुगड्डा के बारे में एक रोचक जानकारी मिलती है. यहाँ एक वृक्ष है जिसे चन्द्रशेखर स्मृति वृक्ष कहते हैं. शहीद चन्द्रशेखर आजाद तथा उनके साथीयों को नाथुपुर गाँव के निवासी भवानी सिंह रावत ने जुलाई 1930 के दौरान काकोरी डकैती के समय आमंत्रित किया था. तब प्रशिक्षण के दौरान अपने साथी हजारी लाल चैल बिहारी, विश्वेशरी दयाल तथा भवानी सिंह रावत के साथ शहीद चन्द्रशेखर आजाद के महाने निशानेबाजी का गवाह है ये पेड. इस पेड के पास शहीद चन्द्रशेखर आजाद मेमोरियल पार्क विकसित किया गया है. प्रत्येक वर्ष 27 फरवरी को यहाँ शहीद चन्द्रशेखर आजाद मेला का आयोजन होता है.
दुगड्डा में ही पानी का एक प्राकृतिक स्रोत है. यहाँ पहाडों से बहुत ही ठंडा पानी रिसता है. स्थानीय लोगों ने यहाँ पाईप लगा रखे हैं. अधिकतर गाडीयाँ यहाँ रूकती हैं. हमारी जीप भी यहाँ रूकी और मैं भी अपने आप को रोक न सका. नीरज जी को यहाँ फोटोग्राफी का एक अच्छा मौका मिल गया.
दुगड्डा में पानी प्राकृतिक स्रोत
दुगड्डा में पानी प्राकृतिक स्रोत
कुछ देर रुकने के बाद हमारी जीप फिर निकल पडी. दूर तक नजर आते पहाड, उन पर छोटे-छोटे मकान, ऊंचे-ऊंचे वृक्ष बडा ही मनोरम द्र्श्य था वो. मैं तो बस खो ही गया था उन पहाडों पर. करीब आठ बजे हम लैंसडौन की सीमा में पहुँच गये. यहाँ एक चुंगी है जहाँ सभी स्थानीय व्यक्तियों तथा पर्यटकों से एक रूपया टैक्स वसुला जाता है.
लैंसडौन में टैक्सी ने हमें गाँधी चौक पर उतार दिया. गाँधी चौक लैंसडौन का केन्द्र माना जाता है. यहाँ मयूर होटल में बडे ही स्वादिष्ट आलू के पंराठें मिलते हैं. लेकिन हमें परांठों से पहले अपने जानकार का घर ढुंढना था. उनका घर कालेशवर रोड पर है. गाँधी चौक से सदर बाजार होकर कालेशवर रोड आता है. एक-दो बार गलत घर में जा कर हम ठीक जगह पहुँच गये. नीचे एक आँटी रहती हैं. बहुत बुढी हैं. फिर कभी उनके बार में लिखुंगा.
ये हैं वो आंटी
उनसे मैं बहुत प्रभावित हूँ. जैसा की नीरज ने बताया है कि वहाँ पर घर बहुत ही छोटे हैं. मेरी दीदी पहली मंजिल पर रहती हैं. उन्होंने हमें देख लिया. हम सीधा ऊपर पहुँच गये. वहाँ गर्मागर्म चाय पी और रात के बचे हुए परांठे खाए.
छोटे-छोटे मकान
नीरज जी सलाम
नाश्ता करके मैं तरोताजा होना चाहता था लेकिन नीरज को पहाडों को जीतने की जल्दी थी. दीदी से रास्ता पूछ कर हम निकल पडे टिप-इन-टॉप के लिये. सीधा रास्ते से जाना तो शायद नीरज के शान के खिलाफ था. वो तो बस पहाडों से सीधा मुकाबला करते हुए चल रहा था. हम भी चुपचाप उसका अनुसरण कर रहे थे. टिप-इन-टॉप के रास्ते में पहले सैंट जोन्स स्कूल और उसके बाद सैंट जोन्स चर्च आया. यहाँ से कुछ ही दूर टिप-इन-टॉप था.
रास्ते की कुछ फोटो
सैंट जोन्स चर्च
टिप-इन-टॉप से नीचे जयहरीखाल दिख रहा था. बहुत ही ज्याद खाई थी. नीरज के पैर उछलने लगे बोला – नरेश जी, चलें नीचे. नहींहींहींहीं……. मैं चीखा. यहाँ हमें एक लोकल व्यक्ति मिला उससे काफी जानकारी और रास्तों के बारे में पता चला.
लैसडौन का स्थायी निवासी
टिप-इन-टॉप
कुछ देर टिप-इन-टॉप में बैठ कर हम निकल पडे संतोषी माता के मंदिर. कुछ दूर पैदल चलने के बाद 65 सीढीयाँ चढ कर संतोषी माता के मंदिर पहुँचा जा सकता है. यहाँ कोई पुजारी नहीं था. लेकिन मंदिर बहुत ही साफ और सुंदर था. यहाँ हम करीब एक घंटा बैठे रही. यहाँ नीरज ने मेरी कुछ तस्वीरें लीं.
संतोषी माता का मंदिर
आगे पढीये भुल्ला ताल, दुर्गा मंदिर व कालेशवर मंदिर की सैर.
26 जुलाई शाम को कार्यक्रम तय हो चुका था कि 27 जुलाई को शाम साढे आठ बजे यमुना बैंक स्टेशन पर मुसाफिर जी (नीरज) से मिलना था. फिर वहाँ से पुरानी दिल्ली स्टेशन से मसुरी एक्सप्रैस में सवार होना था.
27 जुलाई को शाम साढे आठ बजे घर से निकला. मैट्रो फीडर बस का करीब दस मिनट इंतजार किया. लेट हो जाने का डर था इसलिये एक ऑटो वाले को रोका. मैं और एक और व्यक्ति जो मेरे साथ ही खडा फीडर बस का इंतजार कर रहा था दोनों ऑटो वाले के ऊपर झपट पडे, उससे पूछा – यमुना बैंक चलोगे क्या? ऑटो वाला मुस्कुराया और बोला – दोनों को लेकर जाऊँगा. हम दोनों मान गये. हालांकि मैं कभी भी शेयरड ऑटो नहीं लेता. ऑटो वाले ने तीस-तीस रूपय दोनों से लिये. पैसे देकर तेजी से यमुना बैंक के प्रवेश द्वार पर खडा होकर नीरज को फोन लगाया. नीरज उस दिन शास्त्री पार्क पर मुस्तैद थे. उन्होंने इंतजार करने को कहा.
करीब आठ पचास पर नीरज का फोन आया और कहा कि वो फेयर कलैक्शन गेट पर खडे हैं. मैं सिक्योरीटि चैक करवा कर अन्दर गया. नीरज ने अपने ऑफिस के कार्ड से मेरी एन्ट्री करवाई. नीरज को पहचानने में मुझे कोई मुश्किल नहीं आई. छोटे से ऑफिस बैग के साथ बीस साल का एक लडका सामने ही दिख गया था.
हाल-चाल पुछने के बाद, नीरज जानना चाहता था कि मेरे इतने बडे बैग में क्या है. अब मैं ठहरा घर-गृहस्थी वाला. मेरे बैग में तो कपडों से लेकर रात का खाना, पेपर-प्लेट, गिलास, टिश्यू पेपर, कॉपी, पढने के लिये किताब, पैन, कैमरा, फोन का चार्जर, सुबह फारिग होने का सामान और ना जाने क्या-क्या सभी कुछ ही तो था. और नीरज के पास बस छोटा सा ऑफिस बैग.
कुछ ही मिनटों में हम ट्रेन में थे. बातचीत का सिलसिला जब चालू हुआ तो फिर रूकने का नाम ही कहाँ था. एक तो वैसे ही मैं “भारतीय रेल प्रेमी” उस पर बैठे भी हम मैट्रो में थे. मेरे पास सवालों की कमी नहीं थी. लेकिन पहली मुलाकात में मैं मुसाफिर को बोर नहीं करना चाहता था. इसलिये एकदम से ज्यादा प्रश्न नहीं दागे.
राजीव चौक स्टेशन पर मैट्रो बदल कर हम विश्विध्यालय-जहाँगीर पुरी वाली ट्रेन पर सवार हो गये. यहाँ से तीसरा स्टेशन चाँदनी चौक है. पुरानी दिल्ली स्टेशन जाने के लिये यहीं उतरना पडता है. वैसे यह स्टेशन है तो चाँदनी चौक फौव्वारे के पास है लेकिन इसका एक द्वार पुरानी दिल्ली स्टेशन के अंदर ही निकलता है. स्टेशन पर अनगिनित लोग थे. कुली, ठेले वाले, पार्किंग, पुलिस, भिखारी, फोकटिया, जेबकतरे, यात्री, मैं और नीरज सब अपनी-अपनी धुन में अपने गतंव्य तक पहुँचाने के लिये बेचेन दिख रहे थे.
बाहर डिस्पले बोर्ड पर मसुरी एक्सप्रैस का विवरण दिख रहा था. गाडी सात नम्बर प्लेटफार्म पर आनी थी. करीब सवा नौ बजे हम दोनों प्ल्टेफार्म नम्बर सात की शोभा बढा रहे थे. मसुरी एकस्प्रैस का प्रस्थान समय रात्री: 10:20 का था. मुसाफिर जी ने कुछ खाने की इच्छा जताई. मैंने उन्हें बताया कि वैसे तो मैं आपके लिये भी घर से खाना लाया हूँ. लेकिन फिर भी स्टेशन की आलू-पूरी तो खानी ही पडेगी. उसके बिना यात्रा करने का मजा अधुरा ही रहेगा. घर का खाना गाडी चलने के बाद खाएंगे. पूरी वाले से पहले एक प्लेट पूरीयाँ लीं. और उसी में दोनों ने खाया. जब ठीक लगीं तो उसके बाद फिर एक प्लेट ली और उसे भी निपटाया. आलू-छोले की सब्जी और आठ छोटी-छोटी सी पूरीयां थीं वो. खा पीकर हम दोनों गाडी में सवार हो गये और लगे बतियाने.
गाडी करीब 10:25 पर निकल पडी. गाडी में कुछ डेली-पैसेंजर भी चढ चुके थे जिन्हें गाजियाबद उतरना था. गाडी चलते ही टी.टी साहब आ गये. राम बाबू और नीरज का नाम लेते ही मैं सतर्क हो गया. मैंने टी.टी. की तरफ नहीं देखा. नीरज ने टिकिट चैक करवा लिया. ट्रेन करीब सवा ग्यारह बजे गालियाबाद पहुँची. सभी लोकल सवारीयाँ उतर गईं. गाजियाबद से ट्रेन के निकलते ही बर्थें खोल दी गयीं. हमारी एक बीच की व एक ऊपर की बर्थ थी. मैं तो चुपचाप ऊपर जम गया और नीरज ने बीच की बर्थ पर मोर्चा संभाल लिया.
नीरज ने बैग से खेस निकाला, बर्थ पर बिछाया और लैसडाऊन के सपने लेने लगे. मेरे पास चादर नहीं थी. वैसे मैं ट्रेन में नहीं सोता ब्लकि सबके सोने का इंतजार करता हूँ. और रात को गेट के पास बैठ जाता हूँ (लेकिन गेट पर नहीं जैसा की बहुत से लोग पैर लटका कर बैठते हैं). रात को बहुत से स्टेशन आये पिलखुआ, हापुड, गजरौला, चाँदसियाऊ, बिजनौर और फिर नजीबाबाद जिसका मैं बहुत बेसब्री से इंतजार कर रहा था. करीब सवा चार बजे ट्रेन नजीबाबाद पहुँची. यहाँ से मसूरी एक्सप्रैस दो भागों में बंट जाती है. एक जाती है देहरादून और दूसरी जाती है कोटद्वार.
नजीबाबाद में चाय वाला है. देखो कितना अंधेरा है.
नजीबाबाद की कुल्लहड की चाय का आन्नद केवल मैंने लिया नीरज सो रहा था.
नजीबाबाद में ही सुबह हो गयी. वोही चाय वाला है ये.
पुरे रास्ते नीरज ने आँख नहीं खोली… सोता रहा बस घोडे बेच कर. नजीबाबाद से निकलते-निकलते साढे पाँच से ऊपर हो गये थे. गाडी निकलते ही मैंने सोचा थोडा कमर सीधी कर ली जाये. बस ऊपर बर्थ पर लेटा ही था कि नीरज जी उठ गये और अपने नम्बर बनाते हुए बोले चलो भई आ गया कोटद्वार. मैं झट से उठ गया और करीब साढे छै बजे हम कोटद्वार पहुँच गये.